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बुधवार, 30 जून 2010

नन्हा कल्ला

गर्जन-तर्जन से ध्वनित था संसार,
नीचे धरा पर गिरती जल-राशि-अपार।
उधर आषाढ़-मध्य-बिन्दु पर
विवर्धित-नवविभात था;
हर ओर फैला बूँदों का निनाद था,
कि तभी किंचित पा चेतना
फूट पड़ा तरू-शाख पर
नन्हा-सा कल्ला;
देख जग को प्रथम बार
पोपला वह उसनींदा-नंगा,
झाँक कर करता स्वागत
गिरते जल का हाथ पसार;
उधर लिए स्मित एक बूढ़ा पत्ता
चकित शिशु के वीक्ष्ण पर कर दृष्तिपात
अचम्भित था स्वयं देख
बचपन का अद्भुत साक्षात्कार,
सहसा टूटी तंद्रा,सुना स्वर,तड़ित
थी कहीं कौंधी;
लपका वह बूढ़ा तत्क्षण
भर शिशु को अंक में,छिपा लिया उसे ओट में,
तब कसमसाया वह बच्चा,
गुस्से में लाल हुआ
और भीगने को
पुनः हुआ ज्यों वह तत्पर
ढेंपी* पकड़ दिये बूढ़े ने उसे दो कसकर,
बुक्का फाड़ रोने वह लगा,
तब देख बूढ़े ने
किसलय को अपलक,
काँपते होंठों से उसको चूम लिया;
उधर तेज गति थी बारिश के प्रवाह की
तड़ित भी अहरह
कौंध रही,
अंततः
रात भर का भीगा
वह पीला पत्ता
तड़के
अकस्मात डंठल संग टूट गया...
बारिश भी चुप थी
उधर आँख खोलता वह नन्हा कल्ला
अब शिशु न रहा
भर अवायु को पर्णरन्ध्र से वायु को
सकल विश्व में बाँटने लगा।  
ढेंपी* - डंठल कल्ला – अंकुर

2 टिप्‍पणियां:

kavi surendra dube ने कहा…

wah wah

पंकज मिश्रा ने कहा…

बहुत शानदार रचना है। आपको बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद।