यह ब्लॉग खोजें

फ़ॉलोअर

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

अकोदिया की लड़की

ठोस
थी वो अकोदिया की लड़की
पार कर गई थी
कई पड़ाव
लड़कों की साईकिल चलाते-चलाते
दिखतीं हैं तो दिखें
गोरी पिण्डलियाँ
किसे पड़ी है घूरती नज़रों की,
मलिन
थी वो अकोदिया की लड़की
बुहारती थी उज्जैन की सड़कों को
गप्पें भी मार लेती थी
भरे दाने के छोर* बेचते लड़के से
आलीशन मकान के किसी कोने पर,
दूर-दूर तक सुनाई आती थी उसकी आवाज़ की खनक
कि टोकना पड़ता था उसे
कि चुभते थे
उसके
बेमतलब-बेझिझक-बेतरतीब-ठहाके
बेबूझ-सी रहती थी
अकोदिया की वो लड़की
अकसर……
छोर- हरे चने
Amitragaht.blogspot.com



बुधवार, 1 जनवरी 2014

अगहन की रात
(फ्लैश बेक)
कितनी बेशर्म थीं तुम,
देखा था तुम्हें
अगहन की उस रात
बूचे पाँव
पास वाले डोबने पर
सानते हुए अपने पैरों को
गीली मिट्टी से
चुपचाप,
और फिर
चलीं आईं थीं
किस अभिमान से
घुटनों तक उठाए साड़ी;
रख कर जाँघ पर मेरी
वही कीचड़-भरा पाँव
जबकि सिर्फ़ दस ही तो बजा था
उस वक्त इंतज़ार था मुझे
कविता के कागज़ पर उतरने का
और तब सब कुछ छोड़कर
पूछा था ड्रामाई अंदाज़ में,
तो......अभी से रिझा रही हो मुझे, हूँ.....
और तुम चली गईं थीं
तुनक कर मुझे ठेलकर,
और फिर
थामकर हौले से तुम्हें
पूछा था मैंने
कि कैसे पता चला तुम्हें कि
मरता हूँ मैं तुम्हारे पैरों पर
क्या उस रोज़ जब
चूम रहा था मैं
बिस्तर पर मिली ख़ानाबदोश पायल....
(तुम मौन ही बनी रहीं)
या फिर तब पहली दफ़े
उस रात जब छुआ था
हमने परस्पर
तब तुम सिमट गईं थीं
कितने भीतर खुद के
उस रात
सुना था मैंने तुम्हारे पाँवों का वह
आदिम उच्छवास........
(कुछ क्षण)
तो क्या देख लिया था
सबेरे आँगन में
तुमने मुझे
देखते हुए तुम्हें छिपकर,
छुड़ाते हुए
एड़ी का वो बासा महावर....
(तुम बरबस मुस्काईं पर बोली कुछ भी नहीं)
या फिर उस रोज़
बैंठीं थीं तुम पैंरों को
यूँ मोड़कर
जैसे बैठी हो किसी कथा में,
(तुम भूल गईं थीं पाँवों को ढ़ँकना साड़ी से )
तब सहसा तुम्हें आभास हुआ
पलटकर देखा था तुमने
मुझे टकटकी बाँधे,
.....उस दिन लड़ाई थी हमारी
तब भी
मुस्कराईं थीं तुम सब कुछ बिसराकर....
या कि समझ गईं थीं
मेरी आँखों में उतर आए मद को
क्योंकि देखा था मैंने
तुम्हें बाँधते हुए मुरवे पर वो
नज़र का धागा........
एक रात
(सलज्ज हँसी थी चेहरे पर तुम्हारे)
अच्छा ?? तो क्या अच्छा लगता था
मेरा तुम्हारे पैंरों को थामकर
आहिस्ते से धोना
बोलो...बोलो तो....और
तुम चल दीं थीं बेफ़िक्री से
मुझे पगलूराम बोलकर.....
(कुछ क्षण)
अगहन की उस उतरती रात, मुझे याद हो आईं
तुम्हारे सधःस्नात पैंरों पर ठिठकी वो बूँदे,
तुम्हारे पैरों की वो कनसुई
तुम्हारे ही भार से झुहिरते पैरों पर पड़ती वो चुन्नटें;
वो अचानक से बनते सुंदर चाप,
अँगूठे पर चाँदी का वो अनवट
वो बिछियों की झनक
मुरवे पर कसी गुजरिया की झनकार
नीचे लुरकती पायल में गँसे
बोरों का रूनझुन निनाद
तुम्हारा वो ठेठपन
वो अनबनाव..................
(फू.....मैं हार गया)
उस रात फिर पूछा था तुमसे लेकिन अंतिम बार
कि कैसे पता चला कि
मरता हूँ मैं तुम्हारे भूरे पैरों पर,
पर तुम........ चुप ही बनीं रहीं
मुझे याद थी वो तुम्हारी
दबी-दबी सी कूट हँसी,
और फिर आवेश में तुम्हें पकड़ कर कसके
मैंने बोला था
हाँ की थी तुम्हारे पैरों की पधरावनी अपने अंतर में...
तुम चकित थीं
और मैं विकल,
अगहन की उस रात
जाने कितनी देर मुझे एकटक निहारकर
पहली बार बोली थीं तुम कि
सच में नहीं मालूम मुझे कि कैसे पता चला मुझे,
प......र.....पर.........(तुम हकलाईं थीं)
(कुछ क्षण) सुनिए.......
और फिर
लिपटकर मुझसे
कहा था तुमने
बहुत ही धीमे से
कि मैं मरती हूँ आप पर.....
प्रणव सक्सेना अमित्रघात
Amitraghat.blogspot.com


बुधवार, 31 अगस्त 2011

ORIGAMI SAMPAN BOAT

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

आज

आज,
अपने ही कुत्तों को
पत्थर उठाकर
मार दिया मैंने
क्यूँकि भूँकते थे
वो
उन हाड़-तोड़ मेहनत करते
सेल्समेनों
पर........।

बुधवार, 30 जून 2010

नन्हा कल्ला

गर्जन-तर्जन से ध्वनित था संसार,
नीचे धरा पर गिरती जल-राशि-अपार।
उधर आषाढ़-मध्य-बिन्दु पर
विवर्धित-नवविभात था;
हर ओर फैला बूँदों का निनाद था,
कि तभी किंचित पा चेतना
फूट पड़ा तरू-शाख पर
नन्हा-सा कल्ला;
देख जग को प्रथम बार
पोपला वह उसनींदा-नंगा,
झाँक कर करता स्वागत
गिरते जल का हाथ पसार;
उधर लिए स्मित एक बूढ़ा पत्ता
चकित शिशु के वीक्ष्ण पर कर दृष्तिपात
अचम्भित था स्वयं देख
बचपन का अद्भुत साक्षात्कार,
सहसा टूटी तंद्रा,सुना स्वर,तड़ित
थी कहीं कौंधी;
लपका वह बूढ़ा तत्क्षण
भर शिशु को अंक में,छिपा लिया उसे ओट में,
तब कसमसाया वह बच्चा,
गुस्से में लाल हुआ
और भीगने को
पुनः हुआ ज्यों वह तत्पर
ढेंपी* पकड़ दिये बूढ़े ने उसे दो कसकर,
बुक्का फाड़ रोने वह लगा,
तब देख बूढ़े ने
किसलय को अपलक,
काँपते होंठों से उसको चूम लिया;
उधर तेज गति थी बारिश के प्रवाह की
तड़ित भी अहरह
कौंध रही,
अंततः
रात भर का भीगा
वह पीला पत्ता
तड़के
अकस्मात डंठल संग टूट गया...
बारिश भी चुप थी
उधर आँख खोलता वह नन्हा कल्ला
अब शिशु न रहा
भर अवायु को पर्णरन्ध्र से वायु को
सकल विश्व में बाँटने लगा।  
ढेंपी* - डंठल कल्ला – अंकुर

रविवार, 20 जून 2010

अब्बा

मैं ख़ाहिफ़* हूँ।
हर पहर जाग जाता हूँ चौंककर दफ़्अतन*
मेरी पत्नी मुझे बूढ़ा कहती है
और मैं हँसता हूँ
मसनूई* हँसी
उसके इस परिहास पर
मगर तीस का भी तो नहीं हुआ हूँ मैं
फिर भी नींद से बेहाल हूँ;
आज फिर
गजर बजने पर
उठ गया आदतन आधी रात को
देख वही कुछ साये
अब्बा के कक्ष में.................,
वे मौत के फ़रिश्ते हैं
जो रोज़ आ जाते हैं इसी तरह बेआहट-बेखटके,
मैं चूमता हूँ सोते में अब्बा को,
सावधान हो बैठा ही रहता हूँ
भोर की पहली किरण के उगने तक.......।
ख़ाहिफ़*-भयभीत, दफ़्अतन*अकस्मात, मसनूई*बनावटी

मंगलवार, 15 जून 2010

बार-गर्ल.(शाब्दिक कोलाज)

ग़सक़* से ग़लस* तक का परिदृश्य...........।
जाड़ों की बारिश में
बार के
निबिड़ अँधेरे में
पछीते से,
घुसते ही सड़ांध के झिझोड़ते हुए बफ़्फ़ारे.......।
                     लकड़ियों की सीढ़ियाँ उतर
अबूझा-सा
सीला हुआ एक कक्ष……,
दरवाज़े पर खड़े दम साधे बाउन्सर...,
भीतर हाँफता पंखा
फक.....फक...फ्क...फ......फ.....फ.....
दूर किसी कोने से आती
बेसन में लिपटी कतला की गन्ध…..”|
                      टूटे शीशे के सामने
कम कपड़े पहनने को होती
वह निर्वस्त्र;
-तनती ब्रेज़ियर
-टूटता हुक
-भद्दी-सी गाली(एक लमहा)
हँसने का शोर.......(फेड आउट)
उछलता सेफ्टी पिन.....................।
CLOSE UP:
                    चेहरे पर नर्वसनेस,
ग्लैमर के झीने आवरण के पीछे
गहन अंधकार जैसे सफेद दाँतों
के पीछे जमा टारटर.....................
मौन........(उदास संगीत)
CUT TO:
(लाउड म्यूज़िक………)
                    बड़ा-सा कमरा
धुँआ भरा,
अस्तित्व तलाशने ज़ूक-दर-ज़ूक आए
-लोगों का जमावड़ा,
-सीटियों का शोर,
वो.....वो.....वू.....वो.........वोयू........युहू
-बेलौस ठहाके
-मेज़ों से आते अश्लील इशारे.....
म्म्म्म्म....ह.....पुच्च....पुच्च............
                    कुछ ही ऊँचे चिकने फ़र्श पर
चमचमाती-वैश्विक-रोशनियाँ........
                                        चढ़ती रात..............
बाहर बरसती बारिश
भीतर
चीखता आर्केस्टा
गिरती-पड़ती-रंगीन-रोशनियाँ
फ़ोस्टर परोसती
अर्धफ़ाश-सुन्दरियाँ
नशीले-मदमस्त-रूमानी-माहौल
के रोमांच में मग्न...
                                         सामने बैठा
भूतपूर्व प्रेमी कम दलाल,
वीभत्स मुस्कराहटों के दरमियान
थिरकता जिस्म,
भीतर बढ़ता तनाव
माज़ी की तमन्नाओं के बिखराव की हताशा
साँचे में ढली हताशा का
लोग लेते आनन्द
रोशनी में विलीन होते आँसू.........
CUT TO:
                                                  नीम-बेहोश लोग
उतरता कामुक-चिंतन
इधर-उधर जस्त लगाते नोट……….”
भीतर खुलता सेफ्टी पिन;
रात की पाली में खाली
होती संवेदनाएँ,
सभ्य संसार से छली
बार के अँधेरे की शरणार्थी
और
कतार में लगे
शरीरों-आत्माओं-पीड़ाओं के व्यापारी |
                                            बाहर
बरसती बारिश के सन्नाटे में आवागमन
बार से फार्म हाऊस
फार्म हाऊस से सूनसान फ्लैट
और..........फिर,
                   पुलिस-प्रायोजित-छापा
टीवी पर दिखता
उधार के दुपट्टे से लिपटा
चेहरा.......और झाँकती आँखे....।
                   सुबह में तब्दील होती गीली रात
बगूलों की
क्राक......क्राक........क्राक......|
                  वही बन्द-सीला-अँधेरा-कक्ष
टूटे शीशे के सामने,
ज़मानत पर छूटी, वह
तन ढँपने को होती निर्वस्त्र;
                स्तब्ध करती सुन्दरता के मध्य
ज़िन्दगी से चिपकी ज़िन्दगी की सच्चाई,
गोरी-सी पिच्छल टाँगों में उगते बाल...................
                 तेज पदचाप का स्वर
पीछे छूटती बारिश,
फ़जर की बाँग में ऊँघता शहर
तैयार होते टिफिन
-मैथी भरे पराठे, पुरातन आम का अचार-
नवजात के चोंकने का स्वर,
आत्मा में घुसती
नई बरसाती की गन्ध
बच्चों को स्कूल छोड़कर आ रही,
उनके अस्तित्व में खुद को तलाशती
………………”डाँस-बार-गर्ल................

प्रणव सक्सेना अमित्राघात 
  
ग़सक़ - रात का प्रारम्भिक अँधेरा
ग़लस – रात के अंत का अँधियारा
ज़ूक-दर-ज़ूक – झुंड के झुंड