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रविवार, 20 जून 2010

अब्बा

मैं ख़ाहिफ़* हूँ।
हर पहर जाग जाता हूँ चौंककर दफ़्अतन*
मेरी पत्नी मुझे बूढ़ा कहती है
और मैं हँसता हूँ
मसनूई* हँसी
उसके इस परिहास पर
मगर तीस का भी तो नहीं हुआ हूँ मैं
फिर भी नींद से बेहाल हूँ;
आज फिर
गजर बजने पर
उठ गया आदतन आधी रात को
देख वही कुछ साये
अब्बा के कक्ष में.................,
वे मौत के फ़रिश्ते हैं
जो रोज़ आ जाते हैं इसी तरह बेआहट-बेखटके,
मैं चूमता हूँ सोते में अब्बा को,
सावधान हो बैठा ही रहता हूँ
भोर की पहली किरण के उगने तक.......।
ख़ाहिफ़*-भयभीत, दफ़्अतन*अकस्मात, मसनूई*बनावटी

7 टिप्‍पणियां:

Avinash Chandra ने कहा…

kavita theek hai janaab, par baat se sahmat nahi main...bilkul nahi.

Abba to wo chhaanv hai jisme sukoon hi sukoon hai..


Mujhe kuchh yaad aaya purana likha...

shaitaan ko khauf hai usse,
khuda bhi ranj rakhta hai.
mitti ki duniyaa me,
wo hi mahfooj rahta hai.
maut hoti hai aulaad ki,
pitaa uski ragon me bahtaa hai.


likhte rahein..par pitaa ke liye..unki khushi hi khushi ke liye :)

Avinash Chandra ने कहा…

मैं चूमता हूँ सोते में अब्बा को,
सावधान हो बैठा ही रहता हूँ
भोर की पहली किरण के उगने तक.......।

naman aisa sochne..karne..likhne ke liye.
koti-koti naman

ZEAL ने कहा…

beautiful creation.

पंकज मिश्रा ने कहा…

क्या लिखूं। समझ नहीं पा रहा। बस इतना ही कि शानदार रचना है बल्कि बहुत शानदार रचना है। आपको बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद।

लोकेन्द्र सिंह ने कहा…

अच्छी रचना... एक बात बहुत ठीक रही.. कठिन उर्दू शब्दों का अर्थ आपने लिखा... कविता के भाव समझने में आसानी रही...

रचना दीक्षित ने कहा…

,मैं चूमता हूँ सोते में अब्बा को, सावधान हो बैठा ही रहता हूँभोर की पहली किरण के उगने तक
बहुत खूब एक एक शब्द जैसे आँखों के आगे घूम घूम कर जाने क्या क्या याद दिला गया.

Archana writes ने कहा…

nice creation....