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शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

आज

आज,
अपने ही कुत्तों को
पत्थर उठाकर
मार दिया मैंने
क्यूँकि भूँकते थे
वो
उन हाड़-तोड़ मेहनत करते
सेल्समेनों
पर........।

बुधवार, 30 जून 2010

नन्हा कल्ला

गर्जन-तर्जन से ध्वनित था संसार,
नीचे धरा पर गिरती जल-राशि-अपार।
उधर आषाढ़-मध्य-बिन्दु पर
विवर्धित-नवविभात था;
हर ओर फैला बूँदों का निनाद था,
कि तभी किंचित पा चेतना
फूट पड़ा तरू-शाख पर
नन्हा-सा कल्ला;
देख जग को प्रथम बार
पोपला वह उसनींदा-नंगा,
झाँक कर करता स्वागत
गिरते जल का हाथ पसार;
उधर लिए स्मित एक बूढ़ा पत्ता
चकित शिशु के वीक्ष्ण पर कर दृष्तिपात
अचम्भित था स्वयं देख
बचपन का अद्भुत साक्षात्कार,
सहसा टूटी तंद्रा,सुना स्वर,तड़ित
थी कहीं कौंधी;
लपका वह बूढ़ा तत्क्षण
भर शिशु को अंक में,छिपा लिया उसे ओट में,
तब कसमसाया वह बच्चा,
गुस्से में लाल हुआ
और भीगने को
पुनः हुआ ज्यों वह तत्पर
ढेंपी* पकड़ दिये बूढ़े ने उसे दो कसकर,
बुक्का फाड़ रोने वह लगा,
तब देख बूढ़े ने
किसलय को अपलक,
काँपते होंठों से उसको चूम लिया;
उधर तेज गति थी बारिश के प्रवाह की
तड़ित भी अहरह
कौंध रही,
अंततः
रात भर का भीगा
वह पीला पत्ता
तड़के
अकस्मात डंठल संग टूट गया...
बारिश भी चुप थी
उधर आँख खोलता वह नन्हा कल्ला
अब शिशु न रहा
भर अवायु को पर्णरन्ध्र से वायु को
सकल विश्व में बाँटने लगा।  
ढेंपी* - डंठल कल्ला – अंकुर

रविवार, 20 जून 2010

अब्बा

मैं ख़ाहिफ़* हूँ।
हर पहर जाग जाता हूँ चौंककर दफ़्अतन*
मेरी पत्नी मुझे बूढ़ा कहती है
और मैं हँसता हूँ
मसनूई* हँसी
उसके इस परिहास पर
मगर तीस का भी तो नहीं हुआ हूँ मैं
फिर भी नींद से बेहाल हूँ;
आज फिर
गजर बजने पर
उठ गया आदतन आधी रात को
देख वही कुछ साये
अब्बा के कक्ष में.................,
वे मौत के फ़रिश्ते हैं
जो रोज़ आ जाते हैं इसी तरह बेआहट-बेखटके,
मैं चूमता हूँ सोते में अब्बा को,
सावधान हो बैठा ही रहता हूँ
भोर की पहली किरण के उगने तक.......।
ख़ाहिफ़*-भयभीत, दफ़्अतन*अकस्मात, मसनूई*बनावटी

मंगलवार, 15 जून 2010

बार-गर्ल.(शाब्दिक कोलाज)

ग़सक़* से ग़लस* तक का परिदृश्य...........।
जाड़ों की बारिश में
बार के
निबिड़ अँधेरे में
पछीते से,
घुसते ही सड़ांध के झिझोड़ते हुए बफ़्फ़ारे.......।
                     लकड़ियों की सीढ़ियाँ उतर
अबूझा-सा
सीला हुआ एक कक्ष……,
दरवाज़े पर खड़े दम साधे बाउन्सर...,
भीतर हाँफता पंखा
फक.....फक...फ्क...फ......फ.....फ.....
दूर किसी कोने से आती
बेसन में लिपटी कतला की गन्ध…..”|
                      टूटे शीशे के सामने
कम कपड़े पहनने को होती
वह निर्वस्त्र;
-तनती ब्रेज़ियर
-टूटता हुक
-भद्दी-सी गाली(एक लमहा)
हँसने का शोर.......(फेड आउट)
उछलता सेफ्टी पिन.....................।
CLOSE UP:
                    चेहरे पर नर्वसनेस,
ग्लैमर के झीने आवरण के पीछे
गहन अंधकार जैसे सफेद दाँतों
के पीछे जमा टारटर.....................
मौन........(उदास संगीत)
CUT TO:
(लाउड म्यूज़िक………)
                    बड़ा-सा कमरा
धुँआ भरा,
अस्तित्व तलाशने ज़ूक-दर-ज़ूक आए
-लोगों का जमावड़ा,
-सीटियों का शोर,
वो.....वो.....वू.....वो.........वोयू........युहू
-बेलौस ठहाके
-मेज़ों से आते अश्लील इशारे.....
म्म्म्म्म....ह.....पुच्च....पुच्च............
                    कुछ ही ऊँचे चिकने फ़र्श पर
चमचमाती-वैश्विक-रोशनियाँ........
                                        चढ़ती रात..............
बाहर बरसती बारिश
भीतर
चीखता आर्केस्टा
गिरती-पड़ती-रंगीन-रोशनियाँ
फ़ोस्टर परोसती
अर्धफ़ाश-सुन्दरियाँ
नशीले-मदमस्त-रूमानी-माहौल
के रोमांच में मग्न...
                                         सामने बैठा
भूतपूर्व प्रेमी कम दलाल,
वीभत्स मुस्कराहटों के दरमियान
थिरकता जिस्म,
भीतर बढ़ता तनाव
माज़ी की तमन्नाओं के बिखराव की हताशा
साँचे में ढली हताशा का
लोग लेते आनन्द
रोशनी में विलीन होते आँसू.........
CUT TO:
                                                  नीम-बेहोश लोग
उतरता कामुक-चिंतन
इधर-उधर जस्त लगाते नोट……….”
भीतर खुलता सेफ्टी पिन;
रात की पाली में खाली
होती संवेदनाएँ,
सभ्य संसार से छली
बार के अँधेरे की शरणार्थी
और
कतार में लगे
शरीरों-आत्माओं-पीड़ाओं के व्यापारी |
                                            बाहर
बरसती बारिश के सन्नाटे में आवागमन
बार से फार्म हाऊस
फार्म हाऊस से सूनसान फ्लैट
और..........फिर,
                   पुलिस-प्रायोजित-छापा
टीवी पर दिखता
उधार के दुपट्टे से लिपटा
चेहरा.......और झाँकती आँखे....।
                   सुबह में तब्दील होती गीली रात
बगूलों की
क्राक......क्राक........क्राक......|
                  वही बन्द-सीला-अँधेरा-कक्ष
टूटे शीशे के सामने,
ज़मानत पर छूटी, वह
तन ढँपने को होती निर्वस्त्र;
                स्तब्ध करती सुन्दरता के मध्य
ज़िन्दगी से चिपकी ज़िन्दगी की सच्चाई,
गोरी-सी पिच्छल टाँगों में उगते बाल...................
                 तेज पदचाप का स्वर
पीछे छूटती बारिश,
फ़जर की बाँग में ऊँघता शहर
तैयार होते टिफिन
-मैथी भरे पराठे, पुरातन आम का अचार-
नवजात के चोंकने का स्वर,
आत्मा में घुसती
नई बरसाती की गन्ध
बच्चों को स्कूल छोड़कर आ रही,
उनके अस्तित्व में खुद को तलाशती
………………”डाँस-बार-गर्ल................

प्रणव सक्सेना अमित्राघात 
  
ग़सक़ - रात का प्रारम्भिक अँधेरा
ग़लस – रात के अंत का अँधियारा
ज़ूक-दर-ज़ूक – झुंड के झुंड 

रविवार, 30 मई 2010

कबाड़ी वाला

कोलतार-सी
धधकती देह पर
ठुकी-झाँकती दो पनियल आँखें
सूखते होंठ-कर्रे बाल
लिये अधखुले धूल से सने पपोटे
ताकता है वह कभी आकाश तो
कभी घास के विराट मैदान-सा रीता ठेला
और लगाता है ज़ोर-की आवाज़
पेप्परला-कोप्पीला-ताबला-पेचपुर्ज़ा-खाली बोत्तल-कबाड़ला..
और हाँफ कर बैठ जाता है
ड्योड़ी पर, घूरकर
अपनी छोटी होती परछाई को,
इंतज़ार करता है वह
आसाढ़ की पहली फुहार का....

शुक्रवार, 28 मई 2010

अपनी परछाई

उस रोज़
भीड़ जमा थी
रईस-बुर्जुआ-टुच्चे-शातिर
सभी तो मना कर रहे थे
जेस्चर भी उनका यही दर्शा रहा था;
उसके जुड़वाँ हुए हैं……..,
वह वृक्ष-तल-वासिनी
मुक्तिबोध की वही पगली नायिका
वहीं अधजले-फिके-कण्डे और राख,
नहीं थी अब वह एकाकी,
चिपकी जिससे
दो नन्ही-नन्ही झाईं
सहसा भीड़ चिल्लाई,
लड़कियाँ हैं........
और भीड़ छँटने लगी, ठठाते हुए
कि तभी बज उठी थाली,
लड़का भी है....,

गोरा-चिट्टा

गोलमटोल.......

फिर घिर आई हतप्रभ भीड़ में

जाने कितनी चमक उठी

दर्पित-दपदप-आँखें.....,

तलाशने लगी अपनी परछाई.........।

बुधवार, 19 मई 2010

अहा !

अहा ! कितनी प्यारी–सी लड़की

जो मिली थी मुझे घूरे पर

मृत-अजन्मी

पर फिर भी मैंने

उसे उठाया और

तब आँख खोल वह मुस्काई

जिसमें थीं अनंत सम्भावनाएँ….

मैंने चूम ली उसकी

अर्ध विकसित नाक

और ली ढेर सारी मुफ़त की मिठ्ठियाँ

उसने पकड़ लिया मेरा चश्मा और

खिलखिला उठी,

लोग अब कोनों से देखकर मुझे

अहमक कहते हैं

पर कई आँखें हैं जो

पूछती हैं कि

हँसती हुई कैसी लगती थी

उनकी

बिटिया............

बुधवार, 5 मई 2010

चूहा मेरी बहन और रेटकिल

हद्द हो गई !

अब जा के मिला है जेब में,

वो बित्ते-भर का चूहा

जिसे कत्ल कर दिया था बवजह

कई बरस पहले,

मॉरटिन रेटकिल रख के

नहीं, ये विज्ञापन कतई नहीं है

बल्कि ज़रिया था मुक्ति का..........

पर फिर भी

चूहा तो मिला है !

और मारे बू के

छूट रही हैं उबकाईयां

जबकि उसी जेब में

-हाथ डालें-डालें गुज़ारा था मैंने जाड़ा

-खाना भी खाया था उन्हीं हाथों से

-हाथ भी तो मिलाया था कितनो से

तब भी,

न तो मुझे प्लेग हुआ

न ही किसी ने कुछ कहा..........

पर तअज्जुब है कि,

कैसे पता चल गया पुलिस को,

क्या इसलिये कि

दिन में एक दफे जागती है आत्मा,

और तभी से मैं

फ़रार हूँ................,

और भी हैं कई लोग

जो मेरी फ़िराक़ में हैं

जिन्हे चाहिये है वही चूहा,

ये वही थे

जो माँगा करते थे मेरा पेंट अक्सर

इसीलिये मैं नहाता भी था

पेंट पहनकर,

(था न यह अप्रतिम आईडिया..)

पर,

अंततः मैं पकड़ा जाता हूँ.....

ज़ब्ती-शिनाख्ती के

फौरन बाद

दर्ज होता है मुकद्दमा

उस बित्ते से चूहे की हत्या का,

और हुज़ूर बजाते हैं इधर हथौड़ा

तोड़ देते हैं वे

अप्रासंगिक निब को तत्काल

और मरने के स्फीत डर से बिलबिला जाता हूँ मैं

कि तभी ऐन वक्त पर

पेश होती है

चूहे की पीएम रपट

कि भूख से मरा था चूहा,

इसलिये मैं बरी किया जाता हूँ

बाइज़्ज़त बरी

हुर्रे........................।

फू..................

आप सोचते होंगे कि क्या हुआ

फिर रेटकिल का???

आप बहुत ज़्यादा सोचते हैं,

हाँ, मैं नशे में हूँ

श्श........श्श..........श्श.....श्श...

(बहुत धीरे से, एकदम फुसफुसा के..)

बहन को खिला दिये थे

वे टुकड़े चालाकी से

क्यूँकि शादी करी थी उसने

-किसी मुसल्मान से

-खुद के गोत्र में

-किसी कमतर जात में

हा...हा...हा...हा...हा...हा....

’फिलहाल आत्मा सो रही है....

और मॉरटिन रेटकिल भी खुश है

क्योकि इस बार चूहा नहीं

बल्कि बहन मरी थी ठीक बाहर जा के.....।

शनिवार, 1 मई 2010

पर

बारिश से भीगी
उस शाम को
देखा था
बुर्क़े के भीतर
कॉरसेट पहने उस
बुर्क़ानशीं को
और
जाने किस आलम में
आगे बढ़कर
छोटी-सी
बिन्दी लगा दी थी
उस शफ़्फ़ाफ़ चेहरे पर
वो स्तब्ध
देखती ही रही
और चली गई
फिर मिलने का वादा करके
(अगले दिन)
-वो ही शाम  थी
-वो ही बारिश
-वो ही बुर्क़ानशीं
पर.......??? 

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

लाश

जबकि
दोपहर बेहद दिलचस्प है..........।
और हम
हस्बे मामूल*
डर रहे हैं
लाश से
खासतौर पर जब हमने खुद
अपने हाथों से मारा हो..........
हमें लगता है
कि वह मुरदा
कहीं आँखें न खोल ले
लिहाज़ा कई घण्टों तक हाथ में
चाकू लिये या कुछ भी
उसका इंतज़ार करते हैं,
कि कब वह आँखें खोले
और हम उसे
दोबारा गोद दें................
ये लाश
किसी की भी हो सकती है
पर होती है
अक्सर
-किसी किसान की
-किसी जवान की
-किसी भूतपूर्व नक्सल की
-बाँध में डूबे किसी गाँव की
और मेरे इलावा
कोई भी हो सकता है
हत्यारा.........................
जैसे कि आप
अरे! डरिए मत........
हा.....हा......हा......हा........
जबकि दोपहर बेहद दिलचस्प है ।
तब भी
वक्त खिसक लेता है दम साधे
और हम(यानी कि मैं क्यूँकि हम से डर भाग जाता है)
बैठे ही रहते हैं उसके पास
उन बंद आँखों में आँखें डालकर
अगरचे
मेरा उल्टा पाँव सो चुका है
और मारे दहशत के
मैं काँप रहा हूँ
कि लाश की जद में सिर्फ़ मैं ही हूँ
पर फिर भी
मैं बात कर सकता हूँ,
-बिना आँखें हटाए लाश से
अपनी दोस्त से
बेसाख़्ता....................................
-बिना आँखें हटाए लाश से
कर लेता हूँ कामुक-चिंतन.........
-बिना आँखें हटाए लाश से
हाथ मिला लेता हूँ
कत्ल करने को
जाते मोस्साद के एजेंट से.......
और
-बिना आँखें हटाए लाश से
गुज़र जाता हूँ
मिर्ज़ा-मलिक के
पीछे भागते
जोकरों के समूह से.............
आह........पर,
अब मैं थक चुका हूँ
डर रहा हूँ
खुद के एकालाप से
देखिये मेरा
दूसरा पाँव भी
सो चुका है
और मैं लाचार जानवर-सा पड़ा हूँ
किसी सूनसान बियाबान में;
रह-रह के झुरझुरी-सी
देह में फैल रही है
अब...मुझे इंतज़ार है,
पुलिस का
और देखिए तो
सायरन बजाते हुए गुज़र जाती हैं
पुलिस की ढेर-गाड़ियाँ......................,
इस सन्नाटे में
उस........उस
लाश में हरकत हुई है, हाँ....हुई है.....
मेरा चाकू छिटक चुका है
कब का ....
और गूँजती है तीखी चीख...................
वाक़ई में वाक़या
दिलचस्प था .................।
 *हस्बे मामूल-हमेशा की तरह
प्रणव सक्सेना amitraghat.blogspot.com”